सुल्ह-ए-कुल में मिरी गुज़रे है मोहब्बत के बीच
न तो तकरार है काफ़िर से न दीं-दार से बहस
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रहमत तिरी ऐ नाक़ा-कश-ए-महमिल-ए-हाजी
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
तू खुले बालों मिरे सामने आया मत कर
ईद अब के भी गई यूँही किसी ने न कहा
क्यूँ नीची नज़रें कर लीं मियाँ ये तो तू बता
मादर-ए-दहर उठाती है जो हर दम मिरे नाज़
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
मैं किस क़तार में हूँ जहाँ मुझ से सैकड़ों
तुझ को ऐ सय्याद काविश ही अगर मंज़ूर है
क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
ऐ 'मुसहफ़ी' अब चखियो मज़ा ज़ोहद का तुम ने
ले क़ैस ख़बर महमिल-ए-लैला तो न होवे