रात दिन तू है मिरी आग़ोश में
मैं तिरा साहिल मिरा दरिया है तू
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जब से साने ने बनाया है जहाँ का बहरूप
ख़रीदार अपना हम को जानते हो
ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
तसव्वुर तेरी सूरत का मुझे हर शब सताता है
न पूछ इश्क़ के सदमे उठाए हैं क्या क्या
अहल-ए-नसीहत जितने हैं हाँ उन को समझा दें ये लोग
क़नाअत उस की निकलती है वाज़्गूनी में
आलम के मुरक़्क़ा को किया सैर मैं लेकिन
फिर आई ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल की लहर पेश-ए-नज़र
आतिश-ए-ग़म में बस कि जलते हैं
हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से निकला न ये पा-ए-जुनूँ
हैराँ हूँ इस क़दर कि शब-ए-वस्ल भी मुझे