नख़्ल-ए-हिरमाँ को न थी बालीदगी
गरचे कितनी उस पे बरसातें हुईं
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मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और राग के
गुलशन में हवा से जो खुला यार का सीना
समझ ले आशिक़ ओ माशूक़ की हम-आग़ोशी
बस हम हैं शब और कराहना है
किस राह गया लैला का महमिल नहीं मालूम
बनाया एक काफ़िर के तईं उस दम मैं दो काफ़िर
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
गर मज़ा चाहो तो कतरो दिल सरौते से मिरा
जो दम हुक़्क़े का दूँ बोले कि ''मैं हुक़्क़ा नहीं पीता''
खेल जाते हैं जान पर आशिक़
मैं तरह डालूँ अगर सोच कर कहीं घर की
मु-ए-जुज़ 'मीर' जो थे फ़न के उस्ताद