उस के लहराने में चाल आई न मुतलक़ साँप की
मौज-ए-दरिया करती है तक़लीद नाहक़ साँप की
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मातम में फ़ौत-ए-उम्र के रोता हूँ रात दिन
मैं जो कुछ हूँ सो हूँ क्या काम है इन बातों से
मादर-ए-दहर उठाती है जो हर दम मिरे नाज़
मैं ने कहा था उस से अहवाल-ए-गिरिया अपना
बुलबुलो बाग़बाँ को क्यूँ छेड़ा
दस्त-ए-शिकस्ता अपना न पहुँचा कभी दरेग़
तरफ़ा आलम है हमारा भी कि हर दम उस से
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
उस के कूचे की तरफ़ था शब जो दंगा आग का
वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
छोड़ा न एक लहज़ा तिरी ज़ुल्फ़ ने ख़याल
लेने लगे जो चुटकी यक-बार बैठे बैठे