उस के मक़्तल में मिरा ख़ून बटा दस्त-ब-दस्त
ख़ूब-रू जैसे लगाते हैं हिना दस्त-ब-दस्त
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मुहताज-ए-ज़ेब-ए-आरियती कब है ज़ात-ए-बह्त
जा जो इक दिन मिल गई पहलू में शोख़ी देखियो
बनाया एक काफ़िर के तईं उस दम मैं दो काफ़िर
अहल-ए-दिल गर जहाँ से उठता है
अव्वल-ए-उम्र में देखा उसे जिस ने ये कहा
अव्वल तो ये धज और ये रफ़्तार ग़ज़ब है
तू हम-दमों से जुदा रह कि टूट जाता है
बाग़बाँ काटियो मत मौसम-ए-गुल में उस को
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
इक हर्फ़-ए-कुन में जिस ने कौन-ओ-मकाँ बनाया
'मुसहफ़ी' मैं हूँ अब और जामा-ए-उर्यानी है
ध्यान बाँधूँ हूँ जो मैं उस की हम-आग़ोशी का