तू चले साथ तो आहट भी न आए अपनी
दरमियाँ हम भी न हों यूँ तुझे तन्हा चाहें
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अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है
जभी तो उम्र से अपनी ज़ियादा लगता हूँ
ज़िंदगी जिस पर हँसे ऐसी कोई ख़्वाहिश न की
मुंतज़िर रहना भी क्या चाहत का ख़म्याज़ा नहीं
ख़ुद मिरी आँखों से ओझल मेरी हस्ती हो गई
आग से सैराब दश्त-ए-ज़िंदगानी हो गया
तेरी झलक निगाह के हर ज़ाविए में है
मुझे ख़ुद अपनी तलब का नहीं है अंदाज़ा
लिया जो उस की निगाहों ने जाएज़ा मेरा
कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
निखर सका न बदन चाँदनी में सोने से