भरे रहते हैं अश्क आँखों में हर दम
मिरी हर साँस में अब ग़म की बू है
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कौन कहता है ग़म मुसीबत है
लगता नहीं कहीं भी मिरा दिल तिरे बग़ैर
जो भी दे दे वो करम से वही ले ले 'नादिर'
मिरे मिटने पे गर तू भी मिटा होता तो क्या होता
नंग है राज़-ए-मोहब्बत का नुमायाँ होना
बा'द मरने के भी अरमान यही है ऐ दोस्त
ज़िंदगी अपनी कामयाब नहीं
फूल खुलते ही तितली भी आई
क्यूँ ये कहते हो क्या नहीं मालूम
जो दर्द-ए-जिगर में कमी हो तो जानूँ
इंसान के दिल को ही कोई साज़ नहीं है
कोई उस ज़ालिम को समझाता नहीं