इंसान के दिल को ही कोई साज़ नहीं है
किस पर्दे में वर्ना तिरी आवाज़ नहीं है
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कोई उस ज़ालिम को समझाता नहीं
नंग है राज़-ए-मोहब्बत का नुमायाँ होना
किए क़रार मगर बे-क़रार ही रक्खा
जो भी दे दे वो करम से वही ले ले 'नादिर'
मतलब का ज़माना है 'नादिर' कोई क्या देगा
मिरे मिटने पे गर तू भी मिटा होता तो क्या होता
कौन कहता है ग़म मुसीबत है
जो दर्द-ए-जिगर में कमी हो तो जानूँ
ज़िंदगी अपनी कामयाब नहीं
दिल मिट गया तो ख़ैर ज़रूरत नहीं रही
रहमत-ए-हक़ को न कर मायूस अपने फ़ेअ'ल से