जल बुझूँगा भड़क के दम भर में
मैं हूँ गोया दिया दिवाली का
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रहमत-ए-हक़ को न कर मायूस अपने फ़ेअ'ल से
वो कभी माइल-ए-वफ़ा न हुआ
जो दर्द-ए-जिगर में कमी हो तो जानूँ
मतलब का ज़माना है 'नादिर' कोई क्या देगा
तुझे देखा तिरे जल्वों को देखा
हम दिल फ़िदा करें कि तसद्दुक़-ए-जिगर करें
लुट गया दिल कहाँ नहीं मालूम
किसी से फिर मैं क्या उम्मीद रक्खूँ
किए क़रार मगर बे-क़रार ही रक्खा
इंसान के दिल को ही कोई साज़ नहीं है
कौन कहता है ग़म मुसीबत है
पत्थरों पे नाम लिखता हूँ तिरा