रहमत-ए-हक़ को न कर मायूस अपने फ़ेअ'ल से
वो भलाई में नहीं जो है बुराई में मज़ा
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ज़िंदगी अपनी कामयाब नहीं
कौन कहता है ग़म मुसीबत है
दिल मिट गया तो ख़ैर ज़रूरत नहीं रही
किए क़रार मगर बे-क़रार ही रक्खा
फूल खुलते ही तितली भी आई
पत्थरों पे नाम लिखता हूँ तिरा
बा'द मरने के भी अरमान यही है ऐ दोस्त
जल बुझूँगा भड़क के दम भर में
तुझे देखा तिरे जल्वों को देखा
लुट गया दिल कहाँ नहीं मालूम
कोई उस ज़ालिम को समझाता नहीं