जो भी दे दे वो करम से वही ले ले 'नादिर'
मुँह से माँगो तो ख़ुदा और ख़फ़ा होता है
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क्यूँ ये कहते हो क्या नहीं मालूम
मतलब का ज़माना है 'नादिर' कोई क्या देगा
पत्थरों पे नाम लिखता हूँ तिरा
फूल खुलते ही तितली भी आई
कोई उस ज़ालिम को समझाता नहीं
कौन कहता है ग़म मुसीबत है
मिरे मिटने पे गर तू भी मिटा होता तो क्या होता
जो दर्द-ए-जिगर में कमी हो तो जानूँ
लगता नहीं कहीं भी मिरा दिल तिरे बग़ैर
इंसान के दिल को ही कोई साज़ नहीं है
जल बुझूँगा भड़क के दम भर में
किए क़रार मगर बे-क़रार ही रक्खा