ज़िंदगी वक़्त के सफ़्हों में निहाँ है साहब
ये ग़ज़ल सिर्फ़ किताबों में नहीं मिलती है
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Gulzar
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
Rahat Indori
Wasi Shah
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(606) Peoples Rate This
घर किसी का भी हो जलता नहीं देखा जाता
धूप थी सहरा था लेकिन जिस्म का साया न था
अब कहाँ तक पत्थरों की बंदगी करता फिरूँ
सर-बरहना भरी बरसात में घर से निकले
अब तक तो इस सफ़र में फ़क़त तिश्नगी मिली
जो दश्त में मिला था मुझे इतना याद है
मज़हबी चिंगारियों से बस्तियाँ जल जाएँगी
अब किसी को क्या बताएँ किस क़दर नादान थे
उम्र-भर दर्द के रिश्तों को निभाने से रहा
सारी गवाहियाँ तो मिरे हक़ में आ गईं
ज़ख़्म अभी तक ताज़ा हैं हर दाग़ सुलगता रहता है
न जाने कब की दबी तल्ख़ियाँ निकल आईं