अब कहाँ तक पत्थरों की बंदगी करता फिरूँ
दिल से जिस दम भी पुकारूँगा ख़ुदा मिल जाएगा
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Wasi Shah
Habib Jalib
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Gulzar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(462) Peoples Rate This
सहरा में जो मिला था मुझे इतना याद है
वो भीड़ में खड़ा है जो पत्थर लिए हुए
जब भी उस दीवार से मिलता हूँ रो पड़ता हूँ मैं
कौन सी शाख़ का पत्ता था हरा भूल गया
हम आज अपना मुक़द्दर बदल के देखते हैं
उम्र-भर दर्द के रिश्तों को निभाने से रहा
यूँ तो ख़ुद अपने ही साए से भी डर जाते हैं लोग
सारी गवाहियाँ तो मिरे हक़ में आ गईं
मिलते हैं मुस्कुरा के अगरचे तमाम लोग
इस शहर में ख़्वाबों की इमारत नहीं बनती
घर किसी का भी हो जलता नहीं देखा जाता
बे-लौस मोहब्बत का सिला ढूँढ रहा हूँ