जब भी उस दीवार से मिलता हूँ रो पड़ता हूँ मैं
कुछ न कुछ तो है यक़ीनन उस में पत्थर से अलग
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हमारी राह से पत्थर उठा कर फेंक मत देना
अगर चराग़ भी आँधी से डर गए होते
अपने दराज़-क़द पे बहुत नाज़ था जिन्हें
तू दरिया है तो होगा हाँ मगर इतना समझ लेना
हम आज अपना मुक़द्दर बदल के देखते हैं
ये इश्क़ के ख़ुतूत भी कितने अजीब हैं
इक शो'ला-ए-हसरत हूँ मिटा क्यूँ नहीं देते
सर-बरहना भरी बरसात में घर से निकले
वो भीड़ में खड़ा है जो पत्थर लिए हुए
उसे गुमाँ है कि मेरी उड़ान कुछ कम है
इस शहर में ख़्वाबों की इमारत नहीं बनती
मिलते हैं मुस्कुरा के अगरचे तमाम लोग