उसे गुमाँ है कि मेरी उड़ान कुछ कम है
मुझे यक़ीं है कि ये आसमान कुछ कम है
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उठा लाया किताबों से वो इक अल्फ़ाज़ का जंगल
ज़ख़्म अभी तक ताज़ा हैं हर दाग़ सुलगता रहता है
जब भी उस दीवार से मिलता हूँ रो पड़ता हूँ मैं
इंकार कर रहा हूँ तो क़ीमत बुलंद है
ज़िंदगी वक़्त के सफ़्हों में निहाँ है साहब
सारी गवाहियाँ तो मिरे हक़ में आ गईं
यूँ तो ख़ुद अपने ही साए से भी डर जाते हैं लोग
वो मेरा दोस्त है और मुझ से वास्ता भी नहीं
हमारी ज़िंदगी जैसे कोई शब भर का जल्सा है
सर-बरहना भरी बरसात में घर से निकले
मिलते हैं मुस्कुरा के अगरचे तमाम लोग