उठा लाया किताबों से वो इक अल्फ़ाज़ का जंगल
सुना है अब मिरी ख़ामोशियों का तर्जुमा होगा
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घर किसी का भी हो जलता नहीं देखा जाता
मिरे ख़याल की पर्वाज़ बस तुम्हीं तक थी
अगर चराग़ भी आँधी से डर गए होते
मरने को मर भी जाऊँ कोई मसअला नहीं
वो भीड़ में खड़ा है जो पत्थर लिए हुए
सहरा में जो मिला था मुझे इतना याद है
हम आज अपना मुक़द्दर बदल के देखते हैं
इस शहर में ख़्वाबों की इमारत नहीं बनती
जुनूँ है ज़ेहन में तो हौसले तलाश करो
उसे गुमाँ है कि मेरी उड़ान कुछ कम है
न जाने कब की दबी तल्ख़ियाँ निकल आईं