मिरे ख़याल की पर्वाज़ बस तुम्हीं तक थी
फिर इस के बा'द मुझे कोई आसमाँ न मिला
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अगर चराग़ भी आँधी से डर गए होते
उम्र-भर दर्द के रिश्तों को निभाने से रहा
बे-लौस मोहब्बत का सिला ढूँढ रहा हूँ
कौन सी शाख़ का पत्ता था हरा भूल गया
ज़िंदगी वक़्त के सफ़्हों में निहाँ है साहब
ज़ख़्म अभी तक ताज़ा हैं हर दाग़ सुलगता रहता है
यूँ तो ख़ुद अपने ही साए से भी डर जाते हैं लोग
जुनूँ है ज़ेहन में तो हौसले तलाश करो
निगाहों के मनाज़िर बे-सबब धुंधले नहीं पड़ते
अब उन की ख़्वाब-गाहों में कोई आवाज़ मत करना
जब भी उस दीवार से मिलता हूँ रो पड़ता हूँ मैं