मिलते हैं मुस्कुरा के अगरचे तमाम लोग
मर मर के जी रहे हैं मगर सुब्ह-ओ-शाम लोग
Mohsin Naqvi
Habib Jalib
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
Anwar Masood
Gulzar
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सारी गवाहियाँ तो मिरे हक़ में आ गईं
उम्र-भर दर्द के रिश्तों को निभाने से रहा
निगाहों के मनाज़िर बे-सबब धुंधले नहीं पड़ते
ज़ख़्म अभी तक ताज़ा हैं हर दाग़ सुलगता रहता है
मिरे ख़याल की पर्वाज़ बस तुम्हीं तक थी
मरने को मर भी जाऊँ कोई मसअला नहीं
धूप थी सहरा था लेकिन जिस्म का साया न था
सर-बरहना भरी बरसात में घर से निकले
उसे गुमाँ है कि मेरी उड़ान कुछ कम है
कौन सी शाख़ का पत्ता था हरा भूल गया
हम आज अपना मुक़द्दर बदल के देखते हैं