मरने को मर भी जाऊँ कोई मसअला नहीं
लेकिन ये तय तो हो कि अभी जी रहा हूँ मैं
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उम्र-भर दर्द के रिश्तों को निभाने से रहा
उठा लाया किताबों से वो इक अल्फ़ाज़ का जंगल
हम आज अपना मुक़द्दर बदल के देखते हैं
इस शहर में ख़्वाबों की इमारत नहीं बनती
मिरे ख़याल की पर्वाज़ बस तुम्हीं तक थी
जो दश्त में मिला था मुझे इतना याद है
सारी गवाहियाँ तो मिरे हक़ में आ गईं
उसे गुमाँ है कि मेरी उड़ान कुछ कम है
हम पे वो मेहरबान कुछ कम है
अब किसी को क्या बताएँ किस क़दर नादान थे
हमारी ज़िंदगी जैसे कोई शब भर का जल्सा है
ज़िंदगी वक़्त के सफ़्हों में निहाँ है साहब