निगाहों के मनाज़िर बे-सबब धुंधले नहीं पड़ते
हमारी आँख में दरिया कोई ठहरा हुआ होगा
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इतनी मुश्किल में कभी पहले तो जाँ आई न थी
बे-लौस मोहब्बत का सिला ढूँढ रहा हूँ
उसे गुमाँ है कि मेरी उड़ान कुछ कम है
ज़ख़्म अभी तक ताज़ा हैं हर दाग़ सुलगता रहता है
मिलते हैं मुस्कुरा के अगरचे तमाम लोग
वो भीड़ में खड़ा है जो पत्थर लिए हुए
इंकार कर रहा हूँ तो क़ीमत बुलंद है
इक शो'ला-ए-हसरत हूँ मिटा क्यूँ नहीं देते
अब तक तो इस सफ़र में फ़क़त तिश्नगी मिली
वो मेरा दोस्त है और मुझ से वास्ता भी नहीं