वो भीड़ में खड़ा है जो पत्थर लिए हुए
कल तक मिरा ख़ुदा था मुझे इतना याद है
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न जाने कब की दबी तल्ख़ियाँ निकल आईं
मिरे ख़याल की पर्वाज़ बस तुम्हीं तक थी
ज़ख़्म अभी तक ताज़ा हैं हर दाग़ सुलगता रहता है
अपने दराज़-क़द पे बहुत नाज़ था जिन्हें
बे-लौस मोहब्बत का सिला ढूँढ रहा हूँ
वो मेरा दोस्त है और मुझ से वास्ता भी नहीं
यूँ तो ख़ुद अपने ही साए से भी डर जाते हैं लोग
मिलते हैं मुस्कुरा के अगरचे तमाम लोग
सर-बरहना भरी बरसात में घर से निकले
इतनी मुश्किल में कभी पहले तो जाँ आई न थी
मज़हबी चिंगारियों से बस्तियाँ जल जाएँगी
निगाहों के मनाज़िर बे-सबब धुंधले नहीं पड़ते