ये इश्क़ के ख़ुतूत भी कितने अजीब हैं
आँखें वो पढ़ रही हैं जो तहरीर भी नहीं
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अब कहाँ तक पत्थरों की बंदगी करता फिरूँ
इतनी मुश्किल में कभी पहले तो जाँ आई न थी
मिलते हैं मुस्कुरा के अगरचे तमाम लोग
जुनूँ है ज़ेहन में तो हौसले तलाश करो
मरने को मर भी जाऊँ कोई मसअला नहीं
जब भी उस दीवार से मिलता हूँ रो पड़ता हूँ मैं
मिरे ख़याल की पर्वाज़ बस तुम्हीं तक थी
इस शहर में ख़्वाबों की इमारत नहीं बनती
यूँ तो ख़ुद अपने ही साए से भी डर जाते हैं लोग
वो भीड़ में खड़ा है जो पत्थर लिए हुए
जो दश्त में मिला था मुझे इतना याद है
उसे गुमाँ है कि मेरी उड़ान कुछ कम है