तू दरिया है तो होगा हाँ मगर इतना समझ लेना
तिरे जैसे कई दरिया मिरी आँखों में रहते हैं
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इक शो'ला-ए-हसरत हूँ मिटा क्यूँ नहीं देते
हम आज अपना मुक़द्दर बदल के देखते हैं
बे-लौस मोहब्बत का सिला ढूँढ रहा हूँ
हमारी ज़िंदगी जैसे कोई शब भर का जल्सा है
इंकार कर रहा हूँ तो क़ीमत बुलंद है
अब कहाँ तक पत्थरों की बंदगी करता फिरूँ
अब तक तो इस सफ़र में फ़क़त तिश्नगी मिली
तारीकियाँ क़ुबूल थीं मुझ को तमाम उम्र
ये इश्क़ के ख़ुतूत भी कितने अजीब हैं
सारी गवाहियाँ तो मिरे हक़ में आ गईं
न जाने कब की दबी तल्ख़ियाँ निकल आईं