तारीकियाँ क़ुबूल थीं मुझ को तमाम उम्र
लेकिन मैं जुगनुओं की ख़ुशामद न कर सका
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मिरे ख़याल की पर्वाज़ बस तुम्हीं तक थी
उम्र-भर दर्द के रिश्तों को निभाने से रहा
तू दरिया है तो होगा हाँ मगर इतना समझ लेना
न जाने कब की दबी तल्ख़ियाँ निकल आईं
हमारी ज़िंदगी जैसे कोई शब भर का जल्सा है
अब किसी को क्या बताएँ किस क़दर नादान थे
जो दश्त में मिला था मुझे इतना याद है
धूप थी सहरा था लेकिन जिस्म का साया न था
कौन सी शाख़ का पत्ता था हरा भूल गया
वो भीड़ में खड़ा है जो पत्थर लिए हुए
यूँ तो ख़ुद अपने ही साए से भी डर जाते हैं लोग
इंकार कर रहा हूँ तो क़ीमत बुलंद है