उसे बे-नुमू किसी ख़्वाब ने कहीं गहरी नींद सुला दिया
उसे भा गई हैं कहावतें उसे भी क़फ़स में सुकून है
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झील में बहते फूल कँवल के झूटे थे
अना की क़ैद से निकले मुक़ाबला तो करे
तेरी सम्त जाने के रास्तों में ज़िंदा हूँ
वही मोहतरम रहे शहर में जो तफ़ावुतों में लगे रहे
अच्छा सा इख़्तिताम भी तुम से न हो सका
तुझ बिन ख़ाली रह कर कितने साल बिताने होंगे
शब को आँखों में ठहरते कोई कब तक देखे
बदन को जाँ से जुदा हो के ज़िंदा रहना है
फिर एक बार लड़ाई थी अपनी सूरज से
किसी ख़मोशी का ज़हर जब इक मुकालमे की तरह से चुप था