वो कोई दोस्त था अच्छे दिनों का
जो पिछली रात से याद आ रहा है
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जुर्म-ए-उम्मीद की सज़ा ही दे
ख़्वाब में रात हम ने क्या देखा
अकेले घर से पूछती है बे-कसी
मैं जब तेरे घर पहुँचा था
फिर सावन रुत की पवन चली तुम याद आए
होती है तेरे नाम से वहशत कभी कभी
दफ़अ'तन दिल में किसी याद ने ली अंगड़ाई
कभी ज़ुल्फ़ों की घटा ने घेरा
दिल में इक लहर सी उठी है अभी
तिरे मिलने को बेकल हो गए हैं
ये शब ये ख़याल-ओ-ख़्वाब तेरे
हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन