मैं जब तेरे घर पहुँचा था
मैं जब तेरे घर पहुँचा था
तू कहीं बाहर गया हुआ था
तेरे घर के दरवाज़े पर
सूरज नंगे पाँव खड़ा था
दीवारों से आँच आती थी
मटकों में पानी जलता था
तेरे आँगन के पिछवाड़े
सब्ज़ दरख़्तों का रमना था
एक तरफ़ कुछ कच्चे घर थे
एक तरफ़ नाला चलता था
इक भूले हुए देस का सपना
आँखों में घुलता जाता था
आँगन की दीवार का साया
चादर बन कर फैल गया था
तेरी आहट सुनते ही मैं
कच्ची नींद से चौंक उठा था
कितनी प्यार भरी नर्मी से
तू ने दरवाज़ा खोला था
मैं और तू जब घर से चले थे
मौसम कितना बदल गया था
लाल खुजूरों की छतरी पर
सब्ज़ कबूतर बोल रहा था
दूर के पेड़ का जलता साया
हम दोनों को देख रहा था
(361) Peoples Rate This