छोड़ भी देते मोहतसिब हम तो ये शग़्ल-ए-मय-कशी
ज़िद का सवाल है तो फिर जा इसी बात पर नहीं
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ग़म-ओ-अंदोह का लश्कर भी चला आता है
जो सुनते हैं तो मैं मम्नून हूँ उन की इनायत का
ख़ुद हो के कुछ ख़ुदा से भी मर्द-ए-ख़ुदा न माँग
आलम-ए-कौन-ओ-मकाँ नाम है वीराने का
शम-ए-कुश्ता की तरह मैं तिरी महफ़िल से उठा
ऐ निगाह-ए-मस्त उस का नाम है कैफ़-ए-सुरूर
न मय-कशी न इबादत हमारी आदत है
तुम ऐसे अच्छे कि अच्छे नहीं किसी के साथ
पहुँच गए तो करेंगे इधर-उधर की तलाश
दयार-ए-होश की पहले जुनूँ ख़बर लेना
रह के अच्छा भी कुछ भला न हुआ
ख़िरद-आमोज़ हस्ती है मगर अब क्या कहूँ वो भी