पहुँचा न था यक़ीन की मंज़िल पे मैं अभी
मेरा ख़याल मुझ से भी आगे निकल गया
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दिल ही तो है निगाह-ए-करम से पिघल गया
बढ़ने लगी यक़ीन ओ गुमाँ में जो कश्मकश
ख़ैर लाया तो जुनूँ दीवार से दर की तरफ़
शिकवा जो मेरा अश्क में ढलता चला गया
सीने पे कितने दाग़ लिए फिर रहा हूँ मैं
दी है 'नय्यर' मुझ को साक़ी ने ये कैसी ख़ास मय