ग़ैर मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों के हिसाबों की तरह
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ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो
पज़ीराई
बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक
पूरा दुख और आधा चाँद
फ़बेअय्ये आलाए रब्बिकमा तुकज़्ज़िबान
खुलेगी उस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
क़र्या-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आए
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
शाम आई तिरी यादों के सितारे निकले
हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है