ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो
तेरे कहने में रहा करती है
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अब्र बरसे तो इनायत उस की
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
वाहिमा
कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए
दुख नविश्ता है तो आँधी को लिखा आहिस्ता
मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में
क़र्या-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आए
हारने में इक अना की बात थी
वो मजबूरी नहीं थी ये अदाकारी नहीं है
हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
अश्क आँख में फिर अटक रहा है
जुस्तुजू खोए हुओं की उम्र भर करते रहे