कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए
और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी
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इक नाम क्या लिखा तिरा साहिल की रेत पर
ख़याल-ओ-ख़्वाब हुआ बर्ग-ओ-बार का मौसम
ज़िंदगी बे-साएबाँ बे-घर कहीं ऐसी न थी
देने वाले की मशिय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
ये क्या कि वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझ से
दिल अजब शहर कि जिस पर भी खुला दर उस का
यूँ देखना उस को कि कोई और न देखे
शाम आई तिरी यादों के सितारे निकले
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था
क़र्या-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आए
सिर्फ़ एक लड़की