ये क्या कि वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझ से
अपने लिए वो शख़्स तड़पता भी तो देखूँ
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मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
थक गया है दिल-ए-वहशी मिरा फ़रियाद से भी
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
कभी कभार उसे देख लें कहीं मिल लें
कुछ ख़बर लाई तो है बाद-ए-बहारी उस की
यूँ देखना उस को कि कोई और न देखे
इतने घने बादल के पीछे
मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला ही देंगे
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
रंग ख़ुश-बू में अगर हल हो जाए
वो मजबूरी नहीं थी ये अदाकारी नहीं है