कभी कभार उसे देख लें कहीं मिल लें
ये कब कहा था कि वो ख़ुश-बदन हमारा हो
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पूरा दुख और आधा चाँद
कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े
वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
वक़्त-ए-रुख़्सत आ गया दिल फिर भी घबराया नहीं
अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे
रस्ते में मिल गया तो शरीक-ए-सफ़र न जान
वो बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
पज़ीराई
ख़याल-ओ-ख़्वाब हुआ बर्ग-ओ-बार का मौसम
एक्सटेसी
जला दिया शजर-ए-जाँ कि सब्ज़-बख़्त न था
बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे