रस्ते में मिल गया तो शरीक-ए-सफ़र न जान
जो छाँव मेहरबाँ हो उसे अपना घर न जान
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तेरे तोहफ़े तो सब अच्छे हैं मगर मौज-ए-बहार
ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
रुकी हुई है अभी तक बहार आँखों में
सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ
हवा-ए-ताज़ा में फिर जिस्म ओ जाँ बसाने का
निक-नेम
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
रुख़्सत करने के आदाब निभाने ही थे
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
तराश कर मिरे बाज़ू उड़ान छोड़ गया
अश्क आँख में फिर अटक रहा है
बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की