रुख़्सत करने के आदाब निभाने ही थे
बंद आँखों से उस को जाता देख लिया है
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अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
एक मंज़र
हवा-ए-ताज़ा में फिर जिस्म ओ जाँ बसाने का
जब साज़ की लय बदल गई थी
जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा
वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया
रुकी हुई है अभी तक बहार आँखों में
जिस जा मकीन बनने के देखे थे मैं ने ख़्वाब
तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी
जुदाई की पहली रात
गूँगे लबों पे हर्फ़-ए-तमन्ना किया मुझे
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं