तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी
और तिरी बज़्म से अब कोई उठा चाहता है
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जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
वो बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
दिल अजब शहर कि जिस पर भी खुला दर उस का
मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में
हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
मसअला जब भी चराग़ों का उठा
हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
थक गया है दिल-ए-वहशी मिरा फ़रियाद से भी
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर