मसअला जब भी चराग़ों का उठा
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है
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हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है
मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला ही देंगे
बदन के कर्ब को वो भी समझ न पाएगा
मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं
जुस्तुजू खोए हुओं की उम्र भर करते रहे
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
पज़ीराई