हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं
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तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी
रफ़ाक़तों का मिरी उस को ध्यान कितना था
उस के यूँ तर्क-ए-मोहब्बत का सबब होगा कोई
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ
रात के शायद एक बजे हैं
अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे
मक़्तल-ए-वक़्त में ख़ामोश गवाही की तरह
अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से
तू बदलता है तो बे-साख़्ता मेरी आँखें
बहुत रोया वो हम को याद कर के
जब साज़ की लय बदल गई थी