यूँ देखना उस को कि कोई और न देखे
इनआम तो अच्छा था मगर शर्त कड़ी थी
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रुकी हुई है अभी तक बहार आँखों में
खुलेगी उस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता
हारने में इक अना की बात थी
तितलियाँ पकड़ने में दूर तक निकल जाना
अब्र बरसे तो इनायत उस की
दुख नविश्ता है तो आँधी को लिखा आहिस्ता
ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
रात के शायद एक बजे हैं
बारहा तेरा इंतिज़ार किया
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना