यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था
हमारी साल-गिरह ठीक अब के माह में है
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दरवाज़ा जो खोला तो नज़र आए खड़े वो
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
दुआ का टूटा हुआ हर्फ़ सर्द आह में है
रुकने का समय गुज़र गया है
ज़िंदगी बे-साएबाँ बे-घर कहीं ऐसी न थी
बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन
हाथ मेरे भूल बैठे दस्तकें देने का फ़न
मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला ही देंगे
गुलाब हाथ में हो आँख में सितारा हो