तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन मोर बन कर नाचता है
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यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था
जाने कब तक तिरी तस्वीर निगाहों में रही
जिस जा मकीन बनने के देखे थे मैं ने ख़्वाब
हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है
यूँ देखना उस को कि कोई और न देखे
चाँद रात
एक मुश्त-ए-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है
मैं फ़क़त चलती रही मंज़िल को सर उस ने किया
मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था
ग़ैर-मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
अोथेलो