ग़ैर-मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों के हिसाबों की तरह
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हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा
रुकी हुई है अभी तक बहार आँखों में
बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे
जला दिया शजर-ए-जाँ कि सब्ज़-बख़्त न था
ये क्या कि वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझ से
चाँद रात
लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब
चारासाज़ों की अज़िय्यत नहीं देखी जाती
गवाही कैसे टूटती मुआमला ख़ुदा का था
रफ़ाक़तों का मिरी उस को ध्यान कितना था
खुलेगी उस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता