एक मुश्त-ए-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है
ज़िंदगी की बेबसी का इस्तिआरा देखना
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समुंदरों के उधर से कोई सदा आई
हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
सिर्फ़ एक लड़की
थक गया है दिल-ए-वहशी मिरा फ़रियाद से भी
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
उस के यूँ तर्क-ए-मोहब्बत का सबब होगा कोई
टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या
हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
हथेलियों की दुआ फूल बन के आई हो