इक नाम क्या लिखा तिरा साहिल की रेत पर
फिर उम्र भर हवा से मेरी दुश्मनी रही
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शौक़-ए-रक़्स से जब तक उँगलियाँ नहीं खुलतीं
इक हुनर था कमाल था क्या था
ये क्या कि वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझ से
अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
डसने लगे हैं ख़्वाब मगर किस से बोलिए
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
नहीं नहीं ये ख़बर दुश्मनों ने दी होगी
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
रस्ते में मिल गया तो शरीक-ए-सफ़र न जान
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
ज़ूद-पशीमान
एक मंज़र