क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
पर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था
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तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े
निक-नेम
बुलावा
रुख़्सत करने के आदाब निभाने ही थे
रस्ता भी कठिन धूप में शिद्दत भी बहुत थी
गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह
ये क्या कि वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझ से
धनक धनक मिरी पोरों के ख़्वाब कर देगा
बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की