हाथ मेरे भूल बैठे दस्तकें देने का फ़न
बंद मुझ पर जब से उस के घर का दरवाज़ा हुआ
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बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं
गूँगे लबों पे हर्फ़-ए-तमन्ना किया मुझे
रात के शायद एक बजे हैं
कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े
ग़ैर मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं
तेरे तोहफ़े तो सब अच्छे हैं मगर मौज-ए-बहार
फ़बेअय्ये आलाए रब्बिकमा तुकज़्ज़िबान
जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा
मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
निक-नेम