तुम्हारी गलियों में फिर रहा हूँ
ख़याल-ए-रस्म-ए-वफ़ा है वर्ना
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ग़म छेड़ता है साज़-ए-रग-ए-जाँ कभी कभी
होंटों पे हँसी आँख में तारों की लड़ी है
हम बदलते हैं रुख़ हवाओं का
तुम न मानो मगर हक़ीक़त है
दिन छुपा और ग़म के साए ढले
आलम-ए-सोज़-ए-तमन्ना बे-कराँ करते चलो
मैं अपने ग़म-ख़ाना-ए-जुनूँ में
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शुऊर आ जाएगा
सुराही का भरम खुलता न मेरी तिश्नगी होती
कितने शोरीदा-सर मोहब्बत में
आज 'क़ाबिल' मय-कदे में इंक़लाब आने को है
कौन याद आ गया अज़ाँ के वक़्त