आज 'क़ाबिल' मय-कदे में इंक़लाब आने को है
अहल-ए-दिल अंदेशा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ तक आ गए
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कोई दीवाना चाहे भी तो लग़्ज़िश कर नहीं सकता
जहान-ए-आरज़ू आवाज़ ही आवाज़ होता है
हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
तुम न मानो मगर हक़ीक़त है
रास्ता है कि कटता जाता है
दिन छुपा और ग़म के साए ढले
ज़माना दोस्त है किस किस को याद रक्खोगे
कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी
अश्कों में हुस्न-ए-दोस्त दिखाती है चाँदनी
तुम को भी शायद हमारी जुस्तुजू करनी पड़े
वो हर मक़ाम से पहले वो हर मक़ाम के बाद