दिन छुपा और ग़म के साए ढले
आरज़ू के नए चराग़ जले
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ग़म छेड़ता है साज़-ए-रग-ए-जाँ कभी कभी
ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शुऊर आ जाएगा
रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
ये गर्दिश-ए-ज़माना हमें क्या मिटाएगी
बहुत काम लेने हैं दर्द-ए-जिगर से
कोई दीवाना चाहे भी तो लग़्ज़िश कर नहीं सकता
अभी तो तन्क़ीद हो रही है मिरे मज़ाक़-ए-जुनूँ पे लेकिन
कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी
अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहीं
तुम्हारी गलियों में फिर रहा हूँ
तलब की आग किसी शोला-रू से रौशन है